Thursday 31 October 2013

दमदार 'चेचिस' वाले गुलज़ार


दमदार 'चेचिस' वाले गुलज़ार

gulzar
उपमा सिंह
 

चेसिस की तारीख पूछ लो 
कब की 'मैन्युफैक्चर' है वह  
वरना अक्सर ठग लेते हैं, गाड़ियां बेचने वाले!  
मेरी चेचिस की तारीख  
अट्ठारह अगस्त उन्नीस सौ चौंतीस है!!

वह चेचिस की तारीख से अपनी 'पहचान' बताते हैं, पर उन्हें किसी पहचान की जरूरत है भला! चाहने वाले तो उनके हर अंदाज से बखूबी बावस्ता हैं। उन्हें खुद अपनी नज्में भले न याद रहती हों, पर उनके मुरीद उनकी नज्मों में जिन्दगी का फलसफा ढूंढते हैं। अट्ठारह अगस्त उन्नीस सौ चौंतीस की चेचिस वाले यह शख्स अपने वही संपूरण सिंह कालरा हैं, जो कभी आखों से पर्सनल सा सवाल कर, कभी जिगर की आग से बीड़ी जलाकर, तो कभी रात की मटकी से गुडलक निकालकर हर रूह को 'गुलज़ार' कर देते हैं।
बनारस उत्सव के आखिरी दिन जिन्दगी के हर अहसास को नज़्म की शक्ल देने वाले इन्हीं गुलज़ार साहब के नाम रहा। कभी अपनी 'प्लूटो' नुमा छोटी-छोटी नज़्मों तो कभी अपनी अजीज़ नज़्मों की बौछार से वह सबको भिगो गए। यहां वाणी प्रकाशन की ओर से प्रकाशित उनकी छोटी-छोटी नज़्मों का नया संग्रह 'प्लूटो' लोगों के बीच पहुंचा। वहीं सलीम आरिफ के निर्देशन में हुई नाटिका 'पांसा' में उनकी शायरी नाट्यरूप में देखने को मिली। यहां उन्होंने कवि पवन के. वर्मा से बातचीत के सेशन के अलावा हमसे ख़ास मुलाकात में दिल की बातें भी कीं।


मैं और मेरी शायरी 
शायरी जरिया है इज़हार का। वह किस तरह से महसूस करता है, उसे किस तरह कहना चाहता है। मैं जो महसूस करता हूं वह लिखता हूं। शायरी मेरे लिए ख़्याल से पहले का अहसास है। अंग्रेजी में दो चीजें होती हैं थॉट और फील। कभी आप पूरे दौर की बात करते हैं, कभी पूरे वक्त की बात करते हैं, कभी लम्हों की बात करते हैं। मैं आदतन लम्हात पर शायरी करता हूं। उन लम्हात पर जो मुझ पर गुज़रे हैं या मुझे छूकर गुज़रते हैं। वे मुझे छेदकर गुज़रते हैं, मुझे खराशें देकर गुज़रते हैं या मुझे सहलाकर गुज़रते हैं। मेरी कोशिश होती है कि मैं उन लम्हों को दर्ज कर लूं कहीं न कहीं, महफूज कर लूं। हो सकता है कि ऐसे ही लम्हे औरों पर भी बीतें हों और अगर नहीं बीते हो आइए मेरे साथ शेयर कीजिए उन्हें। शायरी किसी ख़्याल को शब्दों के ईंटों से दफनाने सरीखी भी है-

एक ख़्याल को काग़ज़ पर दफ़नाया तो 
इक नज़्म ने आंखें खोल के देखा 
ढेरों लफ़्जों के नीचे वो दबी हुई थी!
 सहमी-सी, इक मद्धम-सी, 
आवाज़ की भाप उड़ी कानों तक 
क्यों इतने लफ़्जों में मुझको चुनते हो  
बाहें कस दी हैं मिसरों की तशबीहों के पर्दे में, 
हर जुंबिश तह कर देते हो! 
इतनी ईंटें लगती हैं क्या, 
एक ख़याल दफनाने में?

'प्लूटो' और मेरा रिश्ता 
'प्लूटो' से जब प्लैनेट का रुतबा छिना तो मुझे बहुत दुख हुआ। अपने सोलर सिस्टम का सबसे छोटा ग्रह-प्लूटो। साइंसदान कभी उसे प्लैनेट मान लेते हैं, कभी निकाल देते हैं। प्लूटो कहीं न कहीं मुझे अपने जैसा लगता है। मुझे तो बहुत पहले घरवालों ने अपनों में गिनना छोड़ दिया था। कहा- बिजनेस फैमिली में यह मिरासी कहां आ गया। जहां मैं जन्मा, वहां का भी नहीं रहा। लोग भी कभी शायर मानते हैं तो कभी कह देते हैं कि अरे कहां, वह तो फिल्मीं गाने लिखता है। इसलिए मैंने अपनी सारी छोटी-छोटी नज़्मों को प्लूटो के नाम कर दिया, जिसे वाणी प्रकाशन ने 'प्लूटो' शीर्षक से पब्लिश किया है।

उसकी ख़ूबसूरती और मेरी उम्र 
 अब लड़की खूबसूरत है तो खूबसूरत है, मेरी उम्र से उसका क्या वास्ता। उम्र तो बढ़नी ही है, उस पर किसी का क्या जोर है। लेकिन अब यह तो नहीं कि आपकी उम्र नहीं रही तो लड़की खूबसूरत नहीं रही। इसलिए अब नज़्म पता नहीं आपको कैसी लगे, लेकिन सुनिए-

थोड़ी देर ज़रा-सा और वहीं रुकती तो 
सूरज झांक के देख रहा था 
खिड़की से एक किरण झुमके पर आकर बैठी थी  
और रुखसार को चूमने वाली थी कि 
तुम मुंह मोड़कर चल दी  
और बेचारी किरण फर्श पर गिर गई  
थोड़ी देर ज़रा सा वहीं पर रुकती तो...

सालते हैं ग़ुम होते शब्द
 सब देख रहे हैं कि लिखा हुआ शब्द कम हो रहा है। सब काम कम्प्यूटर पर हो रहा है। ट्विटर भी उसी पर चलता है। अब सारी बातें उसी पर हो रही हैं। हर बात शॉर्ट में हो रही है। हम तक भी कभी-कभी पर्ची आती है- कैन आई हैव अ पिक विद यू। अब पिक्चर लिखने में भी उन्हें हैवी लगता है। यार यह तो कोई बात नहीं हुई। आप शॉर्ट में लिखो, पर भाषा का वजन तो रहने दो। इसलिए लिखना पड़ा-

किताबें झांकती हैं 
बंद अलमारी के शीशों से  
बड़ी हसरत से ताकती हैं 
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती  
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं, 
अब अक्सर गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर 
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...

अंग्रेजी का प्रभुत्व घटना लाजमी 
हमारे देश में इतने लिटरेरी फेस्टिवल होते हैं। लेकिन ऐसा भी कोई फेस्टिवल हो जरूरी है, जहां सारी हिंदुस्तानी भाषाएं एक साथ मिलें। हमारे देश में 22 भाषाएं हैं, करीब 28 बोलियां हैं। सारी बड़ी जुबानें हैं। सभी क्लासिकल जुबानें हैं। उन्हें साल में एक बार आपस में मिलाकर देखिए, तहज़ीब कहां तक जाती है। हिंदुस्तानी भाषाओं को सम्मान मिलना जरूरी है। अंग्रेजी का प्रभुत्व खत्म होना जरूरी है। अपनी भाषाओं की हीनता खत्म होना जरूरी है। मुझे कोई शिकवा या शिकायत नहीं है शेक्सपियर से, लेकिन हमें कालीदास भी तो पढ़ा दीजिए।

अब सामने लाऊंगा औरों का काम 
ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तानी भाषाओं में काम नहीं हो रहा। 28 जुबानों में कविताएं हो रही हैं, लेकिन उनकी पहचान नहीं हो पा रही। हम उन्हें छू नहीं पा रहे। लोगों को लगता है कि अब तो शायरी नहीं हो रही, अब तो बस सियासत हो रही है। लेकिन ऐसा नहीं है। सभी भाषाओं में हिंदुस्तानी शायरी बड़े जोर से धड़क रही है। हिंदुस्तानी शायरी अभी जिंदा है सब जगह। जरूरी है कि इनका हमारी भाषा हिंदी में एक लिंक बनें। मेरी कोशिश है कि ये सभी जुबानों की शायरी अंग्रेजी के बजाय हिंदी में आप तक पहुंचाई जाएं तो आप शायद उसे करीब से महसूस कर पाएंगे। आखिर हम एक कल्चर से बंधे हुए हैं। हम एक-दूसरे से इतने दूर भी नहीं हैं, जितना लग रहा है। इसलिए मैं अलग-अलग भाषाओं की उन नज़्मों का हिंदी में तर्जुमा कर रहा हूं। 400 तरह के अलग-अलग शायरों की अलग-अलग अंदाज की नज़्मों को मैं आपके सामने लाऊंगा। इस किताब का नाम ही है- 'ए पोयट्री ए डे'। अब आखिर में एक अधूरी नज़्म की टीस सुनिए-

अधूरी नज़्म रखी है  
कुएं में ढोल डूबा और ऊपर नहीं आया 
गिरह खुल गई उसकी 
अधूरी नज़्म रखी है।

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