Tuesday 29 October 2013

अब मैं रामायण पर लिखना चाहता हूं: अमीष


Amish-Tripathi
लेखक अमीष त्रिपाठी




उपमा सिंह

'इममॉर्ट्ल्स ऑफ मेल्हुआ'
, 'द सिक्रेट्स ऑफ नागाज', 'द ओथ ऑफ वायुपुत्राज', अपनी इस शिवा ट्रायलॉजी में शिवजी की शक्तियों का सार पेश करने वाले फेमस राइटर अमीष त्रिपाठी कभी बहुत बड़े नास्तिक थे। यह खुलासा खुद अमीष ने बनारस में चल रहे चार दिवसीय 'बनारस उत्सव' की पहली शाम गुरुवार को किया। काशी में चल रहे इस उत्सव में अमीष, सनबीम स्कूल में अपने चाहने वालों से रूबरू हुए। शिव की नगरी में शिव की गाथा सुनाते हुए अमीष ने लोगों के सवालों के जवाब दिए। साथ ही 'लखनऊ टाइम्स मसाला मिक्स' से खास बातचीत की।

काशी आए हैं तो बचपन के दिन भी याद आ रहे होंगे। अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए? मेरे बचपन का काफी समय शिव की नगरी काशी में बीता है। सच कहूं तो वेद, पुराण, धर्म के बारे में मेरा इंट्रेस्ट या नॉलेज, जो भी है घर और मेरी फैमिली की ही देन है। मेरे दादा जी इन विषयों के बड़े विद्वान थे। पिता जी और मां भी बहुत धार्मिक हैं। घर का माहौल धार्मिक था। इसलिए मुझे में भी धर्म, इतिहास, पुराणों के बारे काफी जानकारी हो गई। बचपन में मैं भी काफी धार्मिक हुआ करता था। इसलिए कहूंगा कि आज मैं जो कुछ भी हूं, अपनी फैमिली के कारण ही हूं।

बैंकिंग सेक्टर में रहते हुए 14 साल तक रहते हुए किताब लिखने का कैसे सूझ गया? सच कहूं तो मैं खुद मानता हूं कि किताब लिखने के लिए मैं सबसे गलत आदमी हूं। इसके एक नहीं, तीन कारण है। पहला कि इस किताब से पहले मैंने जीवन में कभी कुछ नहीं लिखा था। कॉलेज के टाइम में कुछ कविताएं लिखी थीं अपनी गर्लफ्रेंड को इंप्रेस करने के लिए। वे कविताएं बहुत ही बोरिंग और खराब थीं, किसी को पसंद नहीं आती थी, सिवाय मेरी तब की गर्लफ्रेंड और अब वाइफ, प्रीति के। प्रीति अकेली ऐसी थी, जो मेरी उन कविताओं पर हंसती नहीं थी, शायद इसीलिए आज वह मेरी वाइफ हैं। हालांकि ये कविताएं इतनी खराब थीं कि उन्हें इंप्रेस करने में दो साल लगे। दूसरे मैं आउट एंड आउट मैथेमेटिकल और कैलकुलेटिव आदमी था। मेरे दादा जी गणित के जानकार थे। मेरी लाइफ में भी बस मैथ्स और कैलकुलेशन ही था। तीसरा, अपनी शिवा ट्रॉयलॉजी लिखने से पहले मैं बहुत बड़ा नास्तिक था। दरअसल मैं बचपन में धार्मिक हुआ करता था, लेकिन 90 के दशक में जब मुंबई में सांप्रदायिक दंगे हुए थे, तब मैं बहुत दुखी हुआ था और मैंने ईश्वर को मानना छोड़ दिया था। यहां तक कि मेरी पत्नी प्रीति जब मंदिर जातीं तो मैं उनके साथ जाता, लेकिन मंदिर के बाहर रुक जाया करता था। इसलिए मुझे खुद नहीं पता है कि मैंने लिखना क्यूं शुरू किया। मैं इसे भागवान शिव की देन मानता हूं। जैसे-जैसे मैं लिखता गया शिव के प्रति मेरी आस्था बढ़ती गई।
लेकिन नास्तिक होते हुए शिव के बारे में लिखने का विचार क्यों आया? मैंने कहा न, मैंने कहानी को नहीं चुना। कहानी ने मुझे चुना। मुझे कई बार खुद यकीन नहीं होता कि ये मैंने कैसे लिख दिया। मैं बस लैपटॉप खोलकर बैठता था, कहानी आप ही बढ़ती जाती थी। इसलिए मैं खुद को बस माध्यम मानता हूं। हालांकि मैंने लिखने के समय राइटर बनाने के 50 तरीके वाली किताबें भी पढ़ी, लेकिन वे सारी कोशिशें बेकार गईं। दरअसल किताब तो मैंने बुराइयों के खिलाफ एक फिलॉसफिल थिसिस के तौर पर लिखना शुरू किया था। जैसे-जैसे यह आगे बढ़ती गई, नॉवेल का शेप लेती गई। जब लिखा था तब यह भी नहीं पता था कि यह छपेगी भी या नहीं।

आपने काफी रिसर्च बेस्ड तर्क दिए हैं। तो आपकी किताबें रिसर्च हैं या इमैजिनेशन? इसमें काफी हद तक रिसर्च है, लेकिन मेरी कहानी पूरी तरह इमैजिनेशन पर बेस्ड है। मैंने शैव पुराण यानी स्कंद पुराण, शिव पुराण आदि को स्ट्रिक्टली फॉलो किया है, लेकिन इसे मैंने अपनी सोच के मुताबिक इंटरप्रेट किया है। जैसे सोमरस की बात करूं तो मैंने अमेरिकन साइंटिफिक जर्नल में पढ़ा था कि वे ऐसी मेडिसिन बना रहे हैं जिन्हें खाने से लाइफ बढ़ जाएगी। इसी तरह काली या गणेश की डीफॉर्मिटी की भी बात है। मैंने उसी जर्नल में पढ़ा था कि वहां एक ऐसी मेडिसिन आई थी जिसे खाने से लेडीज को प्रेग्नेंसी के टाइम होने वाली वॉमिटिंग या दूसरी प्रॉब्लम्स नहीं होती थीं, अमेरिका में यह मेडिसिन बहुत पॉप्युलर थी, जब तक यह नहीं पता चला कि उसे खाने से होने वाले बच्चों में डिफॉर्मिटी हो रही है। तो मैंने इन साइंटिफिक इंफॉर्मेशन का इस्तेमाल किया है, लेकिन स्टोरी तो काल्पनिक ही है।

शिव गाथा को अपनी कल्पना में ढ़ालते समय लोगों के सेंटिमेंट्स को चोट पहुंचाने का खतरा नहीं महसूस हुआ? बिल्कुल नहीं। मेरे हिसाब से अगर यह प्रयोग किसी देश में किया जा सकता है तो वह भारत में। मैं कोई पहला आदमी नहीं हूं, जिसने ऐसा किया है। मिथ्स को अपने ढंग से इंटरप्रेट और मॉडर्नाइज करने का चलन भारत में बहुत पहले से रहा है। रामायण के न जाने कितने वर्जन हैं हमारे यहां। तुलसीदास का रामचरित मानस, वाल्मिकी रामायण से कई मायनों में अलग है। इसलिए मुझे किसी तरह की कॉन्ट्रोवर्सी होने का बिल्कुल भी डर नहीं था। वैसे भी मेरा मानना है कि 90 फीसदी कॉन्ट्रोवर्सी होती नहीं हैं, करवाई जाती हैं पॉप्युलैरिटी बटोरने के लिए।

इंडियन राइटर्स में इंटरनैशनल अक्लेम या अवॉर्ड के प्रति बहुत मोह होता है। वह रिकॉगनाइज ही अवार्ड मिलने के बाद होते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा पहले होता था। वह वक्त अब गया। दरअसल पहले के राइटर्स इंटरनैशनल लेवल पर इतने कॉन्फिडेंट नहीं थे। आजादी के 40-50 साल इंडिया की इकॉनमी कहीं नहीं थी। लेकिन पिछले 20 सालों में हमारा देश इंटरनैशनल लेवल पर रिच और स्ट्रॉन्ग देश के तौर पर उभरा है। इसलिए हम राइटर्स भी अब अपने स्किन में कंफर्टेबल हैं। अब कोई इंटरनैशनल अवॉर्ड की परवाह नहीं करता।

चेतन भगत हों या आप, अंग्रेजी के लेखकों को तुंरत पॉप्युलैरिटी मिल जाती है। जबकि हिंदी के लेखकों के साथ ऐसा नहीं होता? अरे नहीं, कुछ साल पहले तक अंग्रेजी के ही राइटर्स को कहां पॉप्युलैरिटी मिलती थी। अब राइटर्स का कॉन्फिडेंस बढ़ा है। जल्दी ही आप हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगाली सभी भाषा के राइटर्स को पॉप्युलर होते देखेंगे। उनका दौर भी आएगा। फिर मैं मार्केटिंग में भी बिलिव करता हूं। कई किताबों की मार्केटिंग अच्छी नहीं हो पाती। कई ऐसे राइटर्स हैं जो बहुत अच्छा लिखते हैं पर इतने पॉप्युलर नहीं हुए, क्योंकि उनकी मार्केटिंग अच्छी नहीं हुई।

शिवा ट्रॉयलॉजी के बाद आगे क्या? बहुत सारे विषय हैं दिमाग में। लेकिन सबसे पहले किसे चुनना है, अभी सोच रहा हूं। इतना तय है कि माइथोलॉजी और हिस्ट्री ही मेरे विषय होंगे। मैं रामायण पर लिखना चाहता हूं। महाभारत भी अट्रैक्ट करता है। रूद्र पर भी लिखने का मन है। देखिए किस पर पहले काम होता है।

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