Thursday 31 October 2013

दमदार 'चेचिस' वाले गुलज़ार


दमदार 'चेचिस' वाले गुलज़ार

gulzar
उपमा सिंह
 

चेसिस की तारीख पूछ लो 
कब की 'मैन्युफैक्चर' है वह  
वरना अक्सर ठग लेते हैं, गाड़ियां बेचने वाले!  
मेरी चेचिस की तारीख  
अट्ठारह अगस्त उन्नीस सौ चौंतीस है!!

वह चेचिस की तारीख से अपनी 'पहचान' बताते हैं, पर उन्हें किसी पहचान की जरूरत है भला! चाहने वाले तो उनके हर अंदाज से बखूबी बावस्ता हैं। उन्हें खुद अपनी नज्में भले न याद रहती हों, पर उनके मुरीद उनकी नज्मों में जिन्दगी का फलसफा ढूंढते हैं। अट्ठारह अगस्त उन्नीस सौ चौंतीस की चेचिस वाले यह शख्स अपने वही संपूरण सिंह कालरा हैं, जो कभी आखों से पर्सनल सा सवाल कर, कभी जिगर की आग से बीड़ी जलाकर, तो कभी रात की मटकी से गुडलक निकालकर हर रूह को 'गुलज़ार' कर देते हैं।
बनारस उत्सव के आखिरी दिन जिन्दगी के हर अहसास को नज़्म की शक्ल देने वाले इन्हीं गुलज़ार साहब के नाम रहा। कभी अपनी 'प्लूटो' नुमा छोटी-छोटी नज़्मों तो कभी अपनी अजीज़ नज़्मों की बौछार से वह सबको भिगो गए। यहां वाणी प्रकाशन की ओर से प्रकाशित उनकी छोटी-छोटी नज़्मों का नया संग्रह 'प्लूटो' लोगों के बीच पहुंचा। वहीं सलीम आरिफ के निर्देशन में हुई नाटिका 'पांसा' में उनकी शायरी नाट्यरूप में देखने को मिली। यहां उन्होंने कवि पवन के. वर्मा से बातचीत के सेशन के अलावा हमसे ख़ास मुलाकात में दिल की बातें भी कीं।


मैं और मेरी शायरी 
शायरी जरिया है इज़हार का। वह किस तरह से महसूस करता है, उसे किस तरह कहना चाहता है। मैं जो महसूस करता हूं वह लिखता हूं। शायरी मेरे लिए ख़्याल से पहले का अहसास है। अंग्रेजी में दो चीजें होती हैं थॉट और फील। कभी आप पूरे दौर की बात करते हैं, कभी पूरे वक्त की बात करते हैं, कभी लम्हों की बात करते हैं। मैं आदतन लम्हात पर शायरी करता हूं। उन लम्हात पर जो मुझ पर गुज़रे हैं या मुझे छूकर गुज़रते हैं। वे मुझे छेदकर गुज़रते हैं, मुझे खराशें देकर गुज़रते हैं या मुझे सहलाकर गुज़रते हैं। मेरी कोशिश होती है कि मैं उन लम्हों को दर्ज कर लूं कहीं न कहीं, महफूज कर लूं। हो सकता है कि ऐसे ही लम्हे औरों पर भी बीतें हों और अगर नहीं बीते हो आइए मेरे साथ शेयर कीजिए उन्हें। शायरी किसी ख़्याल को शब्दों के ईंटों से दफनाने सरीखी भी है-

एक ख़्याल को काग़ज़ पर दफ़नाया तो 
इक नज़्म ने आंखें खोल के देखा 
ढेरों लफ़्जों के नीचे वो दबी हुई थी!
 सहमी-सी, इक मद्धम-सी, 
आवाज़ की भाप उड़ी कानों तक 
क्यों इतने लफ़्जों में मुझको चुनते हो  
बाहें कस दी हैं मिसरों की तशबीहों के पर्दे में, 
हर जुंबिश तह कर देते हो! 
इतनी ईंटें लगती हैं क्या, 
एक ख़याल दफनाने में?

'प्लूटो' और मेरा रिश्ता 
'प्लूटो' से जब प्लैनेट का रुतबा छिना तो मुझे बहुत दुख हुआ। अपने सोलर सिस्टम का सबसे छोटा ग्रह-प्लूटो। साइंसदान कभी उसे प्लैनेट मान लेते हैं, कभी निकाल देते हैं। प्लूटो कहीं न कहीं मुझे अपने जैसा लगता है। मुझे तो बहुत पहले घरवालों ने अपनों में गिनना छोड़ दिया था। कहा- बिजनेस फैमिली में यह मिरासी कहां आ गया। जहां मैं जन्मा, वहां का भी नहीं रहा। लोग भी कभी शायर मानते हैं तो कभी कह देते हैं कि अरे कहां, वह तो फिल्मीं गाने लिखता है। इसलिए मैंने अपनी सारी छोटी-छोटी नज़्मों को प्लूटो के नाम कर दिया, जिसे वाणी प्रकाशन ने 'प्लूटो' शीर्षक से पब्लिश किया है।

उसकी ख़ूबसूरती और मेरी उम्र 
 अब लड़की खूबसूरत है तो खूबसूरत है, मेरी उम्र से उसका क्या वास्ता। उम्र तो बढ़नी ही है, उस पर किसी का क्या जोर है। लेकिन अब यह तो नहीं कि आपकी उम्र नहीं रही तो लड़की खूबसूरत नहीं रही। इसलिए अब नज़्म पता नहीं आपको कैसी लगे, लेकिन सुनिए-

थोड़ी देर ज़रा-सा और वहीं रुकती तो 
सूरज झांक के देख रहा था 
खिड़की से एक किरण झुमके पर आकर बैठी थी  
और रुखसार को चूमने वाली थी कि 
तुम मुंह मोड़कर चल दी  
और बेचारी किरण फर्श पर गिर गई  
थोड़ी देर ज़रा सा वहीं पर रुकती तो...

सालते हैं ग़ुम होते शब्द
 सब देख रहे हैं कि लिखा हुआ शब्द कम हो रहा है। सब काम कम्प्यूटर पर हो रहा है। ट्विटर भी उसी पर चलता है। अब सारी बातें उसी पर हो रही हैं। हर बात शॉर्ट में हो रही है। हम तक भी कभी-कभी पर्ची आती है- कैन आई हैव अ पिक विद यू। अब पिक्चर लिखने में भी उन्हें हैवी लगता है। यार यह तो कोई बात नहीं हुई। आप शॉर्ट में लिखो, पर भाषा का वजन तो रहने दो। इसलिए लिखना पड़ा-

किताबें झांकती हैं 
बंद अलमारी के शीशों से  
बड़ी हसरत से ताकती हैं 
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती  
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं, 
अब अक्सर गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर 
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...

अंग्रेजी का प्रभुत्व घटना लाजमी 
हमारे देश में इतने लिटरेरी फेस्टिवल होते हैं। लेकिन ऐसा भी कोई फेस्टिवल हो जरूरी है, जहां सारी हिंदुस्तानी भाषाएं एक साथ मिलें। हमारे देश में 22 भाषाएं हैं, करीब 28 बोलियां हैं। सारी बड़ी जुबानें हैं। सभी क्लासिकल जुबानें हैं। उन्हें साल में एक बार आपस में मिलाकर देखिए, तहज़ीब कहां तक जाती है। हिंदुस्तानी भाषाओं को सम्मान मिलना जरूरी है। अंग्रेजी का प्रभुत्व खत्म होना जरूरी है। अपनी भाषाओं की हीनता खत्म होना जरूरी है। मुझे कोई शिकवा या शिकायत नहीं है शेक्सपियर से, लेकिन हमें कालीदास भी तो पढ़ा दीजिए।

अब सामने लाऊंगा औरों का काम 
ऐसा नहीं है कि हिंदुस्तानी भाषाओं में काम नहीं हो रहा। 28 जुबानों में कविताएं हो रही हैं, लेकिन उनकी पहचान नहीं हो पा रही। हम उन्हें छू नहीं पा रहे। लोगों को लगता है कि अब तो शायरी नहीं हो रही, अब तो बस सियासत हो रही है। लेकिन ऐसा नहीं है। सभी भाषाओं में हिंदुस्तानी शायरी बड़े जोर से धड़क रही है। हिंदुस्तानी शायरी अभी जिंदा है सब जगह। जरूरी है कि इनका हमारी भाषा हिंदी में एक लिंक बनें। मेरी कोशिश है कि ये सभी जुबानों की शायरी अंग्रेजी के बजाय हिंदी में आप तक पहुंचाई जाएं तो आप शायद उसे करीब से महसूस कर पाएंगे। आखिर हम एक कल्चर से बंधे हुए हैं। हम एक-दूसरे से इतने दूर भी नहीं हैं, जितना लग रहा है। इसलिए मैं अलग-अलग भाषाओं की उन नज़्मों का हिंदी में तर्जुमा कर रहा हूं। 400 तरह के अलग-अलग शायरों की अलग-अलग अंदाज की नज़्मों को मैं आपके सामने लाऊंगा। इस किताब का नाम ही है- 'ए पोयट्री ए डे'। अब आखिर में एक अधूरी नज़्म की टीस सुनिए-

अधूरी नज़्म रखी है  
कुएं में ढोल डूबा और ऊपर नहीं आया 
गिरह खुल गई उसकी 
अधूरी नज़्म रखी है।

Tuesday 29 October 2013

अब मैं रामायण पर लिखना चाहता हूं: अमीष


Amish-Tripathi
लेखक अमीष त्रिपाठी




उपमा सिंह

'इममॉर्ट्ल्स ऑफ मेल्हुआ'
, 'द सिक्रेट्स ऑफ नागाज', 'द ओथ ऑफ वायुपुत्राज', अपनी इस शिवा ट्रायलॉजी में शिवजी की शक्तियों का सार पेश करने वाले फेमस राइटर अमीष त्रिपाठी कभी बहुत बड़े नास्तिक थे। यह खुलासा खुद अमीष ने बनारस में चल रहे चार दिवसीय 'बनारस उत्सव' की पहली शाम गुरुवार को किया। काशी में चल रहे इस उत्सव में अमीष, सनबीम स्कूल में अपने चाहने वालों से रूबरू हुए। शिव की नगरी में शिव की गाथा सुनाते हुए अमीष ने लोगों के सवालों के जवाब दिए। साथ ही 'लखनऊ टाइम्स मसाला मिक्स' से खास बातचीत की।

काशी आए हैं तो बचपन के दिन भी याद आ रहे होंगे। अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए? मेरे बचपन का काफी समय शिव की नगरी काशी में बीता है। सच कहूं तो वेद, पुराण, धर्म के बारे में मेरा इंट्रेस्ट या नॉलेज, जो भी है घर और मेरी फैमिली की ही देन है। मेरे दादा जी इन विषयों के बड़े विद्वान थे। पिता जी और मां भी बहुत धार्मिक हैं। घर का माहौल धार्मिक था। इसलिए मुझे में भी धर्म, इतिहास, पुराणों के बारे काफी जानकारी हो गई। बचपन में मैं भी काफी धार्मिक हुआ करता था। इसलिए कहूंगा कि आज मैं जो कुछ भी हूं, अपनी फैमिली के कारण ही हूं।

बैंकिंग सेक्टर में रहते हुए 14 साल तक रहते हुए किताब लिखने का कैसे सूझ गया? सच कहूं तो मैं खुद मानता हूं कि किताब लिखने के लिए मैं सबसे गलत आदमी हूं। इसके एक नहीं, तीन कारण है। पहला कि इस किताब से पहले मैंने जीवन में कभी कुछ नहीं लिखा था। कॉलेज के टाइम में कुछ कविताएं लिखी थीं अपनी गर्लफ्रेंड को इंप्रेस करने के लिए। वे कविताएं बहुत ही बोरिंग और खराब थीं, किसी को पसंद नहीं आती थी, सिवाय मेरी तब की गर्लफ्रेंड और अब वाइफ, प्रीति के। प्रीति अकेली ऐसी थी, जो मेरी उन कविताओं पर हंसती नहीं थी, शायद इसीलिए आज वह मेरी वाइफ हैं। हालांकि ये कविताएं इतनी खराब थीं कि उन्हें इंप्रेस करने में दो साल लगे। दूसरे मैं आउट एंड आउट मैथेमेटिकल और कैलकुलेटिव आदमी था। मेरे दादा जी गणित के जानकार थे। मेरी लाइफ में भी बस मैथ्स और कैलकुलेशन ही था। तीसरा, अपनी शिवा ट्रॉयलॉजी लिखने से पहले मैं बहुत बड़ा नास्तिक था। दरअसल मैं बचपन में धार्मिक हुआ करता था, लेकिन 90 के दशक में जब मुंबई में सांप्रदायिक दंगे हुए थे, तब मैं बहुत दुखी हुआ था और मैंने ईश्वर को मानना छोड़ दिया था। यहां तक कि मेरी पत्नी प्रीति जब मंदिर जातीं तो मैं उनके साथ जाता, लेकिन मंदिर के बाहर रुक जाया करता था। इसलिए मुझे खुद नहीं पता है कि मैंने लिखना क्यूं शुरू किया। मैं इसे भागवान शिव की देन मानता हूं। जैसे-जैसे मैं लिखता गया शिव के प्रति मेरी आस्था बढ़ती गई।
लेकिन नास्तिक होते हुए शिव के बारे में लिखने का विचार क्यों आया? मैंने कहा न, मैंने कहानी को नहीं चुना। कहानी ने मुझे चुना। मुझे कई बार खुद यकीन नहीं होता कि ये मैंने कैसे लिख दिया। मैं बस लैपटॉप खोलकर बैठता था, कहानी आप ही बढ़ती जाती थी। इसलिए मैं खुद को बस माध्यम मानता हूं। हालांकि मैंने लिखने के समय राइटर बनाने के 50 तरीके वाली किताबें भी पढ़ी, लेकिन वे सारी कोशिशें बेकार गईं। दरअसल किताब तो मैंने बुराइयों के खिलाफ एक फिलॉसफिल थिसिस के तौर पर लिखना शुरू किया था। जैसे-जैसे यह आगे बढ़ती गई, नॉवेल का शेप लेती गई। जब लिखा था तब यह भी नहीं पता था कि यह छपेगी भी या नहीं।

आपने काफी रिसर्च बेस्ड तर्क दिए हैं। तो आपकी किताबें रिसर्च हैं या इमैजिनेशन? इसमें काफी हद तक रिसर्च है, लेकिन मेरी कहानी पूरी तरह इमैजिनेशन पर बेस्ड है। मैंने शैव पुराण यानी स्कंद पुराण, शिव पुराण आदि को स्ट्रिक्टली फॉलो किया है, लेकिन इसे मैंने अपनी सोच के मुताबिक इंटरप्रेट किया है। जैसे सोमरस की बात करूं तो मैंने अमेरिकन साइंटिफिक जर्नल में पढ़ा था कि वे ऐसी मेडिसिन बना रहे हैं जिन्हें खाने से लाइफ बढ़ जाएगी। इसी तरह काली या गणेश की डीफॉर्मिटी की भी बात है। मैंने उसी जर्नल में पढ़ा था कि वहां एक ऐसी मेडिसिन आई थी जिसे खाने से लेडीज को प्रेग्नेंसी के टाइम होने वाली वॉमिटिंग या दूसरी प्रॉब्लम्स नहीं होती थीं, अमेरिका में यह मेडिसिन बहुत पॉप्युलर थी, जब तक यह नहीं पता चला कि उसे खाने से होने वाले बच्चों में डिफॉर्मिटी हो रही है। तो मैंने इन साइंटिफिक इंफॉर्मेशन का इस्तेमाल किया है, लेकिन स्टोरी तो काल्पनिक ही है।

शिव गाथा को अपनी कल्पना में ढ़ालते समय लोगों के सेंटिमेंट्स को चोट पहुंचाने का खतरा नहीं महसूस हुआ? बिल्कुल नहीं। मेरे हिसाब से अगर यह प्रयोग किसी देश में किया जा सकता है तो वह भारत में। मैं कोई पहला आदमी नहीं हूं, जिसने ऐसा किया है। मिथ्स को अपने ढंग से इंटरप्रेट और मॉडर्नाइज करने का चलन भारत में बहुत पहले से रहा है। रामायण के न जाने कितने वर्जन हैं हमारे यहां। तुलसीदास का रामचरित मानस, वाल्मिकी रामायण से कई मायनों में अलग है। इसलिए मुझे किसी तरह की कॉन्ट्रोवर्सी होने का बिल्कुल भी डर नहीं था। वैसे भी मेरा मानना है कि 90 फीसदी कॉन्ट्रोवर्सी होती नहीं हैं, करवाई जाती हैं पॉप्युलैरिटी बटोरने के लिए।

इंडियन राइटर्स में इंटरनैशनल अक्लेम या अवॉर्ड के प्रति बहुत मोह होता है। वह रिकॉगनाइज ही अवार्ड मिलने के बाद होते हैं। ऐसा क्यों? ऐसा पहले होता था। वह वक्त अब गया। दरअसल पहले के राइटर्स इंटरनैशनल लेवल पर इतने कॉन्फिडेंट नहीं थे। आजादी के 40-50 साल इंडिया की इकॉनमी कहीं नहीं थी। लेकिन पिछले 20 सालों में हमारा देश इंटरनैशनल लेवल पर रिच और स्ट्रॉन्ग देश के तौर पर उभरा है। इसलिए हम राइटर्स भी अब अपने स्किन में कंफर्टेबल हैं। अब कोई इंटरनैशनल अवॉर्ड की परवाह नहीं करता।

चेतन भगत हों या आप, अंग्रेजी के लेखकों को तुंरत पॉप्युलैरिटी मिल जाती है। जबकि हिंदी के लेखकों के साथ ऐसा नहीं होता? अरे नहीं, कुछ साल पहले तक अंग्रेजी के ही राइटर्स को कहां पॉप्युलैरिटी मिलती थी। अब राइटर्स का कॉन्फिडेंस बढ़ा है। जल्दी ही आप हिंदी, मराठी, गुजराती, बंगाली सभी भाषा के राइटर्स को पॉप्युलर होते देखेंगे। उनका दौर भी आएगा। फिर मैं मार्केटिंग में भी बिलिव करता हूं। कई किताबों की मार्केटिंग अच्छी नहीं हो पाती। कई ऐसे राइटर्स हैं जो बहुत अच्छा लिखते हैं पर इतने पॉप्युलर नहीं हुए, क्योंकि उनकी मार्केटिंग अच्छी नहीं हुई।

शिवा ट्रॉयलॉजी के बाद आगे क्या? बहुत सारे विषय हैं दिमाग में। लेकिन सबसे पहले किसे चुनना है, अभी सोच रहा हूं। इतना तय है कि माइथोलॉजी और हिस्ट्री ही मेरे विषय होंगे। मैं रामायण पर लिखना चाहता हूं। महाभारत भी अट्रैक्ट करता है। रूद्र पर भी लिखने का मन है। देखिए किस पर पहले काम होता है।

भीड़ जुटाने के लिए फूहड़ नहीं हो सकता शास्त्रीय संगीत : पं. राजन मिश्र





sangeet























उपमा सिंह

शास्त्रीय संगीत के महारथी पंडित राजन मिश्र और पंडित साजन मिश्र का नाम संगीत प्रेमियों के लिए अनजाना नहीं है। अपनी ख्याल गायिकी के लिए दुनिया भर में मशहूर पद्मभूषण राजन-साजन मिश्र चार दिवसीय 'बनारस उत्सव' में प्रस्तुति देने पहुंचे तो 'लखनऊ टाइम्स मसाला मिक्स' ने शास्त्रीय संगीत के संबंध में उनसे खास बातचीत की।

* आप दुनिया भर में परफॉर्म करते हैं। अपने घर बनारस में परफॉर्म करना, देश में परफॉर्म करना और विदेशों में परफॉर्म करना तीनों कैसे अलग हैं आपके लिए? -बनारस आने पर बॉडी लैंग्वेज ही बदल जाती है। बनारस अपना घर है। यहीं हमारा स्कूल है, जहां हमने जीवन के शुरुआती पाठ पढ़े हैं। इसलिए घर तो घर ही होता है। बहुत अपनापन, बहुत प्यार मिलता है यहां। भारत भी अपना ही है। सो देश के किसी भी कोने में चले जाएं, अपनेपन का ही भाव होता है। वहीं विदेशों में परफॉर्म करते समय गौरव महसूस होता है कि हमारी कलाओं को यहां इतना सम्मान मिलता है। वहां के हाउसफुल हॉल देखकर भारतीय होने पर गौरव महसूस होता है।

* विदेशों में शास्त्रीय संगीत के प्रोग्राम में हॉल हाउसफुल हो जाते हैं, लेकिन अपने देश में शास्त्रीय संगीत के प्रति ऐसा लगाव या समझ नहीं दिखाई देती। ऐसा क्यों? -हमें तो बहुत सम्मान मिला है। क्योंकि हमें बहुत समय करीब 45 साल हो गए। 1968 से हम स्टेज पर परफॉर्म कर रहे हैं। हमारे यहां भी चीजें बदली हैं। हमारे देखते-देखते ही दिल्ली में पहले जहां 'सप्रू हाउस' जैसे ऑडीटोरियम में जहां केवल 100 से 150 लोग आते थे, वह भी 50 के ऊपर की उम्र वाले। अब सिरी फोर्ट जैसे बड़े ऑडीटोरियम में भी 3200 से 3500 लोग आते हैं। शिव कुमार, पं. हरि प्रसाद चौरसिया या हमारे कार्यक्रम यहां भी हाउसफुल ही होते हैं। कई बार तो स्क्रीन लगानी पड़ती है। मुंबई में 'मराठा मंदिर' में भी यही हाल होता है। कहने का मतलब है कि जहां-जहां शास्त्रीय संगीत का एक्सपोजर बढ़ा है, वहां ऑडियंस भी बढ़ी है। इसमें यूथ का पार्टिसिपेशन सबसे ज्यादा है। हमें तो ऑडियंस में 60 पर्सेंट यूथ ही दिखता है।


* लेकिन इस हाउसफुल की असली वजह बड़ा नाम है, शास्त्रीय संगीत के प्रति रुचि या समझ? -देखिए, बड़ा नाम अक्ट्रैक्ट तो करता ही है, लेकिन फिर भी वे यूथ भी हैं जो शास्त्रीय संगीत के जरिए मन की हारमनी बढ़ाना चाहते हैं। इनमें एमबीए के स्टूडेंट्स हैं, आईआईटी के स्टूडेंट्स हैं, एमबीबीएस स्टूडेंट्स हैं, वे दिखाई देते हैं। आप देखिए, इधर जो शो हो रहे हैं, उनमें शास्त्रीय संगीत को समझने वाले कितने बच्चे आ रहे हैं, वे कितना अच्छा गा रहे हैं। आप इसी से अंदाजा लगाइए कि भारतीयों में शास्त्रीय संगीत के प्रति कितना रुझान है। मतलब पहले से बहुत चेंज आया है। बहुत ऑडियंस बढ़ी है और हम बहुत आशावान हैं।

* यानी वेस्टर्न संगीत के शोर में शास्त्रीय संगीत दबने वाला नहीं है? -कभी नहीं, वेस्टर्न संगीत का जो शोर है, जो उछलकूद है वह ज्यादा दिन नहीं चल सकता। वह आपको एक्साइटेड करता है, लेकिन वह कोई हॉरमनी नहीं पैदा करता, सद्भावना नहीं पैदा करता। जबकि हमारा संगीत वैदिक संगीत है। वैदिक काल से चला आ रहा है। इसे सुनने के बाद पशु-पक्षी भी शांत हो जाते हैं। वन-उपवन में शांति आ जाती है। मनुष्यों पर तो इसका असर पड़ता ही है। मैंने खुद देखा है। यह अपना कल्चरल हेरिटेज है। इसे जितना बढ़ावा दिया जाए, उतना अच्छा है। सभी भारतीयों का दायित्व है कि इसे ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दें।

* फिर यह जो क्लास और मास की खाई है, वह रहेगी या पट पाएगी? -क्लास और मास का अंतर तो रहेगा। यह अंतर हर जगह है। अब क्रिकेट कितना पॉप्युलर है मास में, लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें हॉकी पसंद है। कुछ ऐसे हैं जिन्हें फुटबाल पसंद है। कुछ को टेनिस पसंद है, तो यह अपने-अपने पसंद की बात है। इसलिए क्लासिकल मयूजिक कभी भी मास म्यूजिक नहीं हो सकता। आखिर मास में पॉप्युलर करने के लिए क्लासिकल में कितना कॉम्प्रमाइज किया जाएगा। इससे तो उसमें फूहड़पन आ जाएगा। आखिर कितना नीचे जाएगा कोई। आप देख ही रहे हैं मास क्या पसंद कर रहा है? 'कमर हिलौले' और 'बीड़ी जलौले' जैसे कैसे-कैसे गाने आ रहे हैं और सुपरहिट हो रहे हैं। क्लासिकल म्यूजिक इस स्तर पर तो नीचे नहीं गिर सकता। दरअसल आज का जो मास है वह बहुत नेगेटिव है। वह मॉडर्न कल्चर और ट्रेडिशनल कल्चर के बीच में किसी एक को नहीं चुन पा रहा। यूथ कन्फ़्यूज़ है कि किधर जाए। या तो बिल्कुल मॉडर्न अंग्रेज हो जाओ, या भारतीय रहो, यह जो त्रिशंकु वाली स्थिति है जो खतरनाक है।

* आपको ऐसा लगता है कि फिल्म और शास्त्रीय संगीत की दोस्ती फिर होनी चाहिए? -हमने भी एक फिल्म 'सुर संगम' में लता जी के साथ गाया है। वह संगीत बहुत पॉप्युलर हुआ था। 1983-84 में आई थी यह फिल्म। 'झनक झनक पायल बाजे', 'बैजू बावरा', 'तानसेन' जैसी पुरानी फिल्मों के गानों में आज भी सादगी महसूस होती है। ये गाने सौ बार भी सुन लो अच्छे ही लगते हैं। जबकि आज का संगीत ऊबाऊ है। यह आदमी को एक्साइटमेंट से भर करता है, सुकून नहीं देता। इसलिए यह ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाला। फिर से वही दौर आएगा। कई फिल्मों में अब फिर शास्त्रीय धुनें सुनाई देने लगी हैं। समाज को आखिर में अपनी जड़ों की ओर ही लौटना होगा।