Tuesday 29 October 2013

भीड़ जुटाने के लिए फूहड़ नहीं हो सकता शास्त्रीय संगीत : पं. राजन मिश्र





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उपमा सिंह

शास्त्रीय संगीत के महारथी पंडित राजन मिश्र और पंडित साजन मिश्र का नाम संगीत प्रेमियों के लिए अनजाना नहीं है। अपनी ख्याल गायिकी के लिए दुनिया भर में मशहूर पद्मभूषण राजन-साजन मिश्र चार दिवसीय 'बनारस उत्सव' में प्रस्तुति देने पहुंचे तो 'लखनऊ टाइम्स मसाला मिक्स' ने शास्त्रीय संगीत के संबंध में उनसे खास बातचीत की।

* आप दुनिया भर में परफॉर्म करते हैं। अपने घर बनारस में परफॉर्म करना, देश में परफॉर्म करना और विदेशों में परफॉर्म करना तीनों कैसे अलग हैं आपके लिए? -बनारस आने पर बॉडी लैंग्वेज ही बदल जाती है। बनारस अपना घर है। यहीं हमारा स्कूल है, जहां हमने जीवन के शुरुआती पाठ पढ़े हैं। इसलिए घर तो घर ही होता है। बहुत अपनापन, बहुत प्यार मिलता है यहां। भारत भी अपना ही है। सो देश के किसी भी कोने में चले जाएं, अपनेपन का ही भाव होता है। वहीं विदेशों में परफॉर्म करते समय गौरव महसूस होता है कि हमारी कलाओं को यहां इतना सम्मान मिलता है। वहां के हाउसफुल हॉल देखकर भारतीय होने पर गौरव महसूस होता है।

* विदेशों में शास्त्रीय संगीत के प्रोग्राम में हॉल हाउसफुल हो जाते हैं, लेकिन अपने देश में शास्त्रीय संगीत के प्रति ऐसा लगाव या समझ नहीं दिखाई देती। ऐसा क्यों? -हमें तो बहुत सम्मान मिला है। क्योंकि हमें बहुत समय करीब 45 साल हो गए। 1968 से हम स्टेज पर परफॉर्म कर रहे हैं। हमारे यहां भी चीजें बदली हैं। हमारे देखते-देखते ही दिल्ली में पहले जहां 'सप्रू हाउस' जैसे ऑडीटोरियम में जहां केवल 100 से 150 लोग आते थे, वह भी 50 के ऊपर की उम्र वाले। अब सिरी फोर्ट जैसे बड़े ऑडीटोरियम में भी 3200 से 3500 लोग आते हैं। शिव कुमार, पं. हरि प्रसाद चौरसिया या हमारे कार्यक्रम यहां भी हाउसफुल ही होते हैं। कई बार तो स्क्रीन लगानी पड़ती है। मुंबई में 'मराठा मंदिर' में भी यही हाल होता है। कहने का मतलब है कि जहां-जहां शास्त्रीय संगीत का एक्सपोजर बढ़ा है, वहां ऑडियंस भी बढ़ी है। इसमें यूथ का पार्टिसिपेशन सबसे ज्यादा है। हमें तो ऑडियंस में 60 पर्सेंट यूथ ही दिखता है।


* लेकिन इस हाउसफुल की असली वजह बड़ा नाम है, शास्त्रीय संगीत के प्रति रुचि या समझ? -देखिए, बड़ा नाम अक्ट्रैक्ट तो करता ही है, लेकिन फिर भी वे यूथ भी हैं जो शास्त्रीय संगीत के जरिए मन की हारमनी बढ़ाना चाहते हैं। इनमें एमबीए के स्टूडेंट्स हैं, आईआईटी के स्टूडेंट्स हैं, एमबीबीएस स्टूडेंट्स हैं, वे दिखाई देते हैं। आप देखिए, इधर जो शो हो रहे हैं, उनमें शास्त्रीय संगीत को समझने वाले कितने बच्चे आ रहे हैं, वे कितना अच्छा गा रहे हैं। आप इसी से अंदाजा लगाइए कि भारतीयों में शास्त्रीय संगीत के प्रति कितना रुझान है। मतलब पहले से बहुत चेंज आया है। बहुत ऑडियंस बढ़ी है और हम बहुत आशावान हैं।

* यानी वेस्टर्न संगीत के शोर में शास्त्रीय संगीत दबने वाला नहीं है? -कभी नहीं, वेस्टर्न संगीत का जो शोर है, जो उछलकूद है वह ज्यादा दिन नहीं चल सकता। वह आपको एक्साइटेड करता है, लेकिन वह कोई हॉरमनी नहीं पैदा करता, सद्भावना नहीं पैदा करता। जबकि हमारा संगीत वैदिक संगीत है। वैदिक काल से चला आ रहा है। इसे सुनने के बाद पशु-पक्षी भी शांत हो जाते हैं। वन-उपवन में शांति आ जाती है। मनुष्यों पर तो इसका असर पड़ता ही है। मैंने खुद देखा है। यह अपना कल्चरल हेरिटेज है। इसे जितना बढ़ावा दिया जाए, उतना अच्छा है। सभी भारतीयों का दायित्व है कि इसे ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दें।

* फिर यह जो क्लास और मास की खाई है, वह रहेगी या पट पाएगी? -क्लास और मास का अंतर तो रहेगा। यह अंतर हर जगह है। अब क्रिकेट कितना पॉप्युलर है मास में, लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्हें हॉकी पसंद है। कुछ ऐसे हैं जिन्हें फुटबाल पसंद है। कुछ को टेनिस पसंद है, तो यह अपने-अपने पसंद की बात है। इसलिए क्लासिकल मयूजिक कभी भी मास म्यूजिक नहीं हो सकता। आखिर मास में पॉप्युलर करने के लिए क्लासिकल में कितना कॉम्प्रमाइज किया जाएगा। इससे तो उसमें फूहड़पन आ जाएगा। आखिर कितना नीचे जाएगा कोई। आप देख ही रहे हैं मास क्या पसंद कर रहा है? 'कमर हिलौले' और 'बीड़ी जलौले' जैसे कैसे-कैसे गाने आ रहे हैं और सुपरहिट हो रहे हैं। क्लासिकल म्यूजिक इस स्तर पर तो नीचे नहीं गिर सकता। दरअसल आज का जो मास है वह बहुत नेगेटिव है। वह मॉडर्न कल्चर और ट्रेडिशनल कल्चर के बीच में किसी एक को नहीं चुन पा रहा। यूथ कन्फ़्यूज़ है कि किधर जाए। या तो बिल्कुल मॉडर्न अंग्रेज हो जाओ, या भारतीय रहो, यह जो त्रिशंकु वाली स्थिति है जो खतरनाक है।

* आपको ऐसा लगता है कि फिल्म और शास्त्रीय संगीत की दोस्ती फिर होनी चाहिए? -हमने भी एक फिल्म 'सुर संगम' में लता जी के साथ गाया है। वह संगीत बहुत पॉप्युलर हुआ था। 1983-84 में आई थी यह फिल्म। 'झनक झनक पायल बाजे', 'बैजू बावरा', 'तानसेन' जैसी पुरानी फिल्मों के गानों में आज भी सादगी महसूस होती है। ये गाने सौ बार भी सुन लो अच्छे ही लगते हैं। जबकि आज का संगीत ऊबाऊ है। यह आदमी को एक्साइटमेंट से भर करता है, सुकून नहीं देता। इसलिए यह ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाला। फिर से वही दौर आएगा। कई फिल्मों में अब फिर शास्त्रीय धुनें सुनाई देने लगी हैं। समाज को आखिर में अपनी जड़ों की ओर ही लौटना होगा।

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