वाह! अब भी मैं ही दोषी
याद है तुम्हे
बासंती रंग की सलवार-कमीज पे धानी चुनर लिए
मैं कैसी इतराती थी, कभी हवा में लहराती, कभी घूंघट बनाती,
कभी बस यूं ही लजाकर उसकी ओट में छिप जाती
फिर बार-बार उसकी ओर लपलपाते वो हाथ किसके थे
जिसने... एक रोज सरे-राह खींच ली थी मेरी ओढनी
अब जब मैंने खुद उतार फेंका उसे
और पहन ली तुम जैसी पोशाक
तब भी मैं ही दोषी, मैं ही निर्लज
याद है तुम्हे
कितनी खुश थी मैं तुम्हारा साथ पाकर
अपना घर-बार छोड़कर भी कितनी खुश थी मैं तुम्हारी होकर
तुम कमाते, मैं घर चलाती, तुम थक-कर आते, मैं पांव दबाती
फिर मुझे बोझ, निर्भर और असहाय मानने वाला वो कौन था
जिसने...जब चाहा उठाया मुझपे हाथ, तो कभी चलाई लात
अब जब मैं लांघ गई तुम्हारी चौखट
और भेड़ दी किवाड़ तुम्हारे मुंह पर
तब भी मैं ही दोषी, मैं ही अमर्यादित
याद है तुम्हे
मैं भी कैसे रंग-बिरंगे सपने सजाती थी,
सफेद घोड़े पर बैठे शहजादे के आने के
डोली में बैठकर पिया घर जाने के
फिर वो कौन था जिसने तोड़ा उन्हें, कागज के चंद नोटों के लिए
जिसने... जिंदा जलाया कभी, तो कभी अकेला छोड़ चल दिए
अब जब मैंने ठुकरा दिया तुम्हे
जो नहीं चाहती अब तुम्हारा साथ
तब भी मैं ही दोषी, मैं ही अडिय़ल
वाह! अब भी मैं ही दोषी
- उपमा सिंह