Friday 23 November 2012

सोचती हूँ...

सोचती हूं
कहूं मैं भी कुछ
बोलूं, बतियाऊ
खोल दूं मन का हर राज़
गाऊं , गुनगुनाऊं, छेड़ दूं, कोई साज़

पर नहीं फूटते बोल
साज़ खामोश से है
सन्नाटा है हर तरफ
हर अल्फाज़ चुप है...

भर देना चाहती हूं यह खालीपन
अंतर्मन का ये सूनापन
खिलखिलाना चाहती हूं
गीत गाना चाहती हूं

पर अधर साथ नहीं देते
गीत सूझते ही नहीं
खामोशी इस तरह है छाई
कि हर एहसास चुप है...

जि़न्दगी मुझे भी करे प्यार
डाले मेरे गले में भी खुशियों के हार
महक उठूं मैं भी
कर दे ऐसा शृंगार
पर वो तो रूठी है मुझसे
दूर कहीं छुपी है मुझसे, खफा ऐसे है
कि अब तो हर सांस चुप है...
 

- उपमा सिंह


2 comments:

  1. सोचती हूं
    कहूं मैं भी कुछ...

    ReplyDelete
  2. सोचती हूं
    कहूं मैं भी कुछ....

    ReplyDelete